तलाक़-ए-नूर (भाग-3) TALAK-E-NOOR (Part-3) By Rajendra Pandit
थोड़ी देर तकरीर बर्दाश्त करने के बाद नूर मोहम्मद को एहसास हुआ कि मौलाना की धार्मिक तकरीर में तकरीर कम तकरार ज़्यादा है। इस पर इस्लाम नहीं सवार है बल्कि यह स्वयं इस्लाम पर सवार है। अगर इसकी सब बातें यथावत मान ली जाएं तो जन्नत हासिल करना कोई मुश्किल काम नहीं है। उन्हें लगे हाथों इस बात का भी अहसास हुआ कि अगर वह इनके हाँथ लग गया तो ये कमर में बम बंधवाकर बहत्तर हूरों से रूबरू करा देगा। उन्हें यह ज्ञान भी हासिल हुआ कि कोई किसी को बिना कारण के नहीं मरता बल्कि मरने के लिए भी तमाम प्रयास करने पड़ते है। मौलाना की तकरीर का यदि अर्क निकाला जाए तो यह बात सामने आ रही थी कि मर जाना व्यक्ति की बुनियादी ज़रुरत है।
नूर मोहम्मद के सामने असमंजस की स्थिति थी एक तरफ मौलाना था जिसके बताये रास्ते पर चलकर एक मुश्त जन्नत मिल सकती थी और दूसरी तरफ नसरीन बेग़म थी जो किश्तों में जहन्नुम का अहसास करा रही थीं। मौलाना के पास अपार ज्ञान था क्योंकि वह पूरी दुनिया घूम चुका था जबकि नसरीन अज्ञानी होते हुए भी उसकी दुनिया घुमाये जा रही थी।
शरीफ कुरैशी को तलाक का तज़रुबा था, उसने कई तलाक दिए थे इसलिए नूर मोहम्मद उनसे राय लेने और तरीका-ए-तलाक समझने की गरज से आये थे लेकिन यहाँ स्थितियां बिलकुल अलग थी। यहां तलाक की चर्चा करना उचित नहीं था। वहां पर बोलने का अधिकार केवल बड़े मौलाना को ही था। उन्हें केवल कान का उपयोग करने की छूट थी, चूंकि वे कान से नहीं बोल पाते थे इसलिए चुपचाप बाहर आ गए।
सामने से अब्दुल मियाँ आते दिखाई दिए। कई साल पहले उनकी बीवी को इंद्रजीत पाठक बिना तलाक दिलाये मुम्बई भगा ले गया था। अब अब्दुल मियाँ अकेले ही रहते हैं। वे हिन्दू धर्म के अच्छे जानकार हैं। राष्ट्रीय एकता के प्रबल पैरोकारों में उनकी गिनती होती हैं।मस्जिद में अजान देना उनका मुख्य कार्य है। मुसलमानों में उनका कोई सम्मान नहीं है, वैसे सम्मान तो हिंदुओं में भी नहीं है, लेकिन रामलीला के सीजन में उनकी डिमांड बढ़ जाती है। रामलीला वाले नकली दाढी का खर्च बचाने के चक्कर में उनसे विश्वामित्र का अभिनय कराते है। चूंकि वे हिंदुओं की रामलीला में विश्वामित्र का अभिनय करते हैं, इसलिए कई मुसलमान उन्हें विभीषण समझते हैं। रामलीला के ही चक्कर में उन्हें अपनी बीवी से भी हाँथ धोना पड़ा। एक बार ये रामलीला में सीता हरण का दृश्य देखने में इस कदर भाव विभोर हो गए कि घर की फ़िक्र न रही। इंद्रजीत पाठक जो कि रावण का अभिनय कर रहे थे सीता माता को अशोक वाटिका छोड़कर सीधे अब्दुल मियाँ के घर मोटर साईकिल से पंहुच गए, जहां फरजाना पहले से तैयार बैठी थी, फिर दोनों ने एक साथ फिल्मों में काम करने की कसमें खाईं और मुम्बई की ओर निकल गए। इधर इंद्रजीत पाठक के हिस्से का बचा रावण का अभिनय अब्दुल मियाँ को करना पड़ा और उधर अब्दुल मियाँ का रोल इंद्रजीत पाठक को।
इस घटना को कुछ मुसलमानों ने ज़ोर शोर उठाने का प्रयास किया, उन्हें इस मुद्दे पर दंगा भड़काने की पूरी संभावनाएं दिखीं, लेकिन जब उन्हें यह जानकारी हुई की उस मोटर साईकिल में पेट्रोल अब्दुल मियाँ ने ही भराया था, तो मामला ठंडा पड़ गया।
क्रमशः ...
राजेन्द्र पण्डित, लखनऊ
थोड़ी देर तकरीर बर्दाश्त करने के बाद नूर मोहम्मद को एहसास हुआ कि मौलाना की धार्मिक तकरीर में तकरीर कम तकरार ज़्यादा है। इस पर इस्लाम नहीं सवार है बल्कि यह स्वयं इस्लाम पर सवार है। अगर इसकी सब बातें यथावत मान ली जाएं तो जन्नत हासिल करना कोई मुश्किल काम नहीं है। उन्हें लगे हाथों इस बात का भी अहसास हुआ कि अगर वह इनके हाँथ लग गया तो ये कमर में बम बंधवाकर बहत्तर हूरों से रूबरू करा देगा। उन्हें यह ज्ञान भी हासिल हुआ कि कोई किसी को बिना कारण के नहीं मरता बल्कि मरने के लिए भी तमाम प्रयास करने पड़ते है। मौलाना की तकरीर का यदि अर्क निकाला जाए तो यह बात सामने आ रही थी कि मर जाना व्यक्ति की बुनियादी ज़रुरत है।
नूर मोहम्मद के सामने असमंजस की स्थिति थी एक तरफ मौलाना था जिसके बताये रास्ते पर चलकर एक मुश्त जन्नत मिल सकती थी और दूसरी तरफ नसरीन बेग़म थी जो किश्तों में जहन्नुम का अहसास करा रही थीं। मौलाना के पास अपार ज्ञान था क्योंकि वह पूरी दुनिया घूम चुका था जबकि नसरीन अज्ञानी होते हुए भी उसकी दुनिया घुमाये जा रही थी।
शरीफ कुरैशी को तलाक का तज़रुबा था, उसने कई तलाक दिए थे इसलिए नूर मोहम्मद उनसे राय लेने और तरीका-ए-तलाक समझने की गरज से आये थे लेकिन यहाँ स्थितियां बिलकुल अलग थी। यहां तलाक की चर्चा करना उचित नहीं था। वहां पर बोलने का अधिकार केवल बड़े मौलाना को ही था। उन्हें केवल कान का उपयोग करने की छूट थी, चूंकि वे कान से नहीं बोल पाते थे इसलिए चुपचाप बाहर आ गए।
सामने से अब्दुल मियाँ आते दिखाई दिए। कई साल पहले उनकी बीवी को इंद्रजीत पाठक बिना तलाक दिलाये मुम्बई भगा ले गया था। अब अब्दुल मियाँ अकेले ही रहते हैं। वे हिन्दू धर्म के अच्छे जानकार हैं। राष्ट्रीय एकता के प्रबल पैरोकारों में उनकी गिनती होती हैं।मस्जिद में अजान देना उनका मुख्य कार्य है। मुसलमानों में उनका कोई सम्मान नहीं है, वैसे सम्मान तो हिंदुओं में भी नहीं है, लेकिन रामलीला के सीजन में उनकी डिमांड बढ़ जाती है। रामलीला वाले नकली दाढी का खर्च बचाने के चक्कर में उनसे विश्वामित्र का अभिनय कराते है। चूंकि वे हिंदुओं की रामलीला में विश्वामित्र का अभिनय करते हैं, इसलिए कई मुसलमान उन्हें विभीषण समझते हैं। रामलीला के ही चक्कर में उन्हें अपनी बीवी से भी हाँथ धोना पड़ा। एक बार ये रामलीला में सीता हरण का दृश्य देखने में इस कदर भाव विभोर हो गए कि घर की फ़िक्र न रही। इंद्रजीत पाठक जो कि रावण का अभिनय कर रहे थे सीता माता को अशोक वाटिका छोड़कर सीधे अब्दुल मियाँ के घर मोटर साईकिल से पंहुच गए, जहां फरजाना पहले से तैयार बैठी थी, फिर दोनों ने एक साथ फिल्मों में काम करने की कसमें खाईं और मुम्बई की ओर निकल गए। इधर इंद्रजीत पाठक के हिस्से का बचा रावण का अभिनय अब्दुल मियाँ को करना पड़ा और उधर अब्दुल मियाँ का रोल इंद्रजीत पाठक को।
इस घटना को कुछ मुसलमानों ने ज़ोर शोर उठाने का प्रयास किया, उन्हें इस मुद्दे पर दंगा भड़काने की पूरी संभावनाएं दिखीं, लेकिन जब उन्हें यह जानकारी हुई की उस मोटर साईकिल में पेट्रोल अब्दुल मियाँ ने ही भराया था, तो मामला ठंडा पड़ गया।
क्रमशः ...
राजेन्द्र पण्डित, लखनऊ

