Friday, 4 November 2016

तलाक़-ए-नूर (भाग-3) TALAK-E-NOOR (Part-3) By Rajendra Pandit
थोड़ी देर तकरीर बर्दाश्त करने के बाद नूर मोहम्मद को एहसास हुआ कि मौलाना की धार्मिक तकरीर में तकरीर कम तकरार ज़्यादा है। इस पर इस्लाम नहीं सवार है बल्कि यह स्वयं इस्लाम पर सवार है। अगर इसकी सब बातें यथावत मान ली जाएं तो जन्नत हासिल करना कोई मुश्किल काम नहीं है। उन्हें लगे हाथों इस बात का भी अहसास हुआ कि अगर वह इनके हाँथ लग गया तो ये कमर में बम बंधवाकर बहत्तर हूरों से रूबरू करा देगा। उन्हें यह ज्ञान भी हासिल हुआ कि कोई किसी को बिना कारण के नहीं मरता बल्कि मरने के लिए भी तमाम प्रयास करने पड़ते है। मौलाना की तकरीर का यदि अर्क निकाला जाए तो यह बात सामने आ रही थी कि मर जाना व्यक्ति की बुनियादी ज़रुरत है।
नूर मोहम्मद के सामने असमंजस की स्थिति थी एक तरफ मौलाना था जिसके बताये रास्ते पर चलकर एक मुश्त जन्नत मिल सकती थी और दूसरी तरफ नसरीन बेग़म थी जो किश्तों में जहन्नुम का अहसास करा रही थीं। मौलाना के पास अपार ज्ञान था क्योंकि वह पूरी दुनिया घूम चुका था जबकि नसरीन अज्ञानी होते हुए भी उसकी दुनिया घुमाये जा रही थी।
शरीफ कुरैशी को तलाक का तज़रुबा था, उसने कई तलाक दिए थे इसलिए नूर मोहम्मद उनसे राय लेने और तरीका-ए-तलाक समझने की गरज से आये थे लेकिन यहाँ स्थितियां बिलकुल अलग थी। यहां तलाक की चर्चा करना उचित नहीं था। वहां पर बोलने का अधिकार केवल बड़े मौलाना को ही था। उन्हें केवल कान का उपयोग करने की छूट थी, चूंकि वे कान से नहीं बोल पाते थे इसलिए चुपचाप बाहर आ गए।
सामने से अब्दुल मियाँ आते दिखाई दिए। कई साल पहले उनकी बीवी को इंद्रजीत पाठक बिना तलाक दिलाये मुम्बई भगा ले गया था। अब अब्दुल मियाँ अकेले ही रहते हैं। वे हिन्दू धर्म के अच्छे जानकार हैं। राष्ट्रीय एकता के प्रबल पैरोकारों में उनकी गिनती होती हैं।मस्जिद में अजान देना उनका मुख्य कार्य है। मुसलमानों में उनका कोई सम्मान नहीं है, वैसे सम्मान तो हिंदुओं में भी नहीं है, लेकिन रामलीला के सीजन में उनकी डिमांड बढ़ जाती है। रामलीला वाले नकली दाढी का खर्च बचाने के चक्कर में उनसे विश्वामित्र का अभिनय कराते है। चूंकि वे हिंदुओं की रामलीला में विश्वामित्र का अभिनय करते हैं, इसलिए कई मुसलमान उन्हें विभीषण समझते हैं। रामलीला के ही चक्कर में उन्हें अपनी बीवी से भी हाँथ धोना पड़ा।  एक बार ये रामलीला में सीता हरण का दृश्य देखने में इस कदर भाव विभोर हो गए कि घर की फ़िक्र न रही। इंद्रजीत पाठक जो कि रावण का अभिनय कर रहे थे सीता माता को अशोक वाटिका छोड़कर सीधे अब्दुल मियाँ के घर मोटर साईकिल से पंहुच गए, जहां फरजाना पहले से तैयार बैठी थी, फिर दोनों ने एक साथ फिल्मों में काम करने की कसमें खाईं और मुम्बई की ओर निकल गए। इधर इंद्रजीत पाठक के हिस्से का बचा रावण का अभिनय अब्दुल मियाँ को करना पड़ा और उधर अब्दुल मियाँ का रोल इंद्रजीत पाठक को।
इस घटना को कुछ मुसलमानों ने ज़ोर शोर उठाने का प्रयास किया, उन्हें इस मुद्दे पर दंगा भड़काने की पूरी संभावनाएं दिखीं, लेकिन जब उन्हें यह जानकारी हुई की उस मोटर साईकिल में पेट्रोल अब्दुल मियाँ ने ही भराया था, तो मामला ठंडा पड़ गया।
क्रमशः ...
राजेन्द्र पण्डित, लखनऊ

Thursday, 20 October 2016

तलाक-ए-नूर (भाग-2) Talak-E-Noor (Part-2) By Rajendra Pandit
शरीफ कुरैशी, नूर मोहम्मद के बचपन का दोस्त था। दोनों एक साथ मदरसे से भगाये गए थे। सबक याद करने में दोनों कच्चे थे। एक दिन तंग आकर रसीद मौलवी ने सबक ठीक से न सीखने के कारण दोनो को दो-दो थप्पड़ रसीद कर दिए। फलस्वरूप छुट्टी के बाद दोनों ने मिलकर रसीद मौलवी को ठीक से सबक सिखा दिया। पाँच दिन बाद जब रसीद मौलवी चलने लायक हुए तो उन्होंने  मदरसे के फादर से कहकर दोनों को मदरसे से निकलवा दिया। इन दोनों ने भी आगे की पढ़ाई का मोह त्याग कर जितना भी अभी तक पढ़ा था उतने में संतोष कर लिया।
शरीफ ने हामिद लंगड़े का गैंग ज्वाइन करके गिरहकटी सीख ली और नूर मोहम्मद ने अपने वालिद को प्रॉपर्टी से बेदखल करते हुए उनकी परचून की दुकान हथिया ली। इस प्रकार दोनों अपने-अपने पैरों पर खड़े हो गए। कुछ दिनों बाद शरीफ को अहसास हुआ कि उसके गिरहकटी के व्यापार को कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है पुलिस को उनका यह व्यापार अच्छा नहीं लगता इसलिए उन्हें अक्सर पकड़ कर थाने में बंद कर देती है। अपने प्रति पुलिस का रवैया उचित न देखकर उसने कुछ नया करने का मन बनाया और वर्तमान समय में वह बैगर्स ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट चलाता है। जिसमे मेलों में खोए, बांग्लादेश और नेपाल से उठवाए गए बच्चों को भीख मांगने लायक बनाया जाता है। ज़रुरत पड़ने पर उनके अंग भंग कर दया का पात्र बनाकर बड़े-बड़े शहरों में सप्लाई करने का धंधा भी करने लगा। यतीमखाने की आंड़ में यह धंधा बड़े जोर शोर से फलने लगा और पैसा आने पर शरीफ फूलने लगा। बचपन में टीबी का मरीज़ जैसा दिखने वाला शरीफ अब थाइराइड के पेशेंट की तरह मोटा ताज़ा हो गया।
नूर मोहम्मद अपनी बेग़म से मिले ग़म को ग़ुम करने की गरज से जब शरीफ के घर पहुंचे उस समय उनके ड्राइंगरूम में कई पहुंचे हुए लोग पहले से पंहुंचे हुए थे। बीच के सोफे पर बड़े मौलाना, और अन्य कुर्सियों पर उनके उपमौलानों का जमावड़ा था। बड़े मौलाना की पेशानी (मत्था) इस कदर स्याह (काली) थी कि उन्हें देखकर लगता था कि वे नवाज़ के अलावा कुछ पढ़ते ही नहीं है। उनके सामने एक प्लेट में भुने हुए काजू और दूसरी प्लेट में खजूर रखे थे। नूर मोहम्मद के अंदर आते ही वार्ता बंद हो गयी। शरीफ ने सबसे नूर मोहम्मद का परिचय कराया और एक कुर्सी जिसपर मौलाना साहब का रिवाल्वर रखा था उसे काजू की प्लेट के बगल में रख कर बैठने का इशारा किया। नूर मोहम्मद चुपचाप कुर्सी पर तशरीफ़ रख दिए।
मौलाना साहब ने फिर बोलना प्रारम्भ कर दिया, नूर मोहम्मद के पास सुनने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था। मौलाना साहब जिस भाषा में बोल रहे थे उसे न तो हिन्दी और न ही उर्दू कहा जा सकता था, बल्कि अरबी और फारसी की कोई बाय प्रोडक्ट टाइप की भाषा में उनकी तक़रीर जारी थी। हर आठ शब्द के बाद इंशाअल्लाह, दो मिनट बाद काफ़िर, ढाई मिनट बाद जिहाद, और तीन मिनट बाद इस्लाम पर खतरा के अतिरिक्त नूर मोहम्मद को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। चूंकि कुछ समझ में नहीं आ रहा था इसलिए वे मौलाना साहब को बहुत विद्वान समझने लगे, और उनकी तकरीर बड़ी श्रद्धा से सुनने लगे। संभवतः तकरीर को श्रद्धा से सुनने का एक और कारण था कि उनके सामने मेज पर खाने के तीन ऑप्शन मौजूद थे काजू, खजूर और गोली।
क्रमशः...

Tuesday, 18 October 2016

तलाक -ए-नूर -(1) Talak-e-noor (by Rajendra Pandit)
नूर मोहम्मद केवल उनका नाम ही था, जबकि न तो उनमे नूर था और न ही मोहम्मद। वे खुदा के फज़ल से बदसूरत नहीं थे बल्कि खुद की कोशिशों से उन्होंने ये बदसूरती डेवलप की थी। नूर मोहम्मद नौ बच्चों के बीच इकलौते बाप थे। वैसे तो नसरीन बेगम उनकी शरीक-ए-हयात थी, लेकिन उनकी जिन्दगी जहन्नुम बनाने में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
नूर मोहम्मद की नसरीन बेगम से निकाह के फ़ौरन बाद अर्थात तीसरा कबूल कहते ही पटनी बंद हो गयी थी। जबतक नसरीन उनकी फुफेरी बहन थी तबतक उसका स्वभाव अच्छा था लेकिन बेगम बनते ही पता नहीं कौन से जिन्न ने उसके शरीर में प्रवेश कर लिया था कि उसने नूर मोहम्मद का जीना मुहाल कर दिया। फिर भी उन दोनों के सवा साल प्रति बच्चे की दर से नौ बच्चे थे। बुजुर्गों की "दूधों नहाओ, पूतों फलों" की आधी दुआ उनपर भरपूर असर कर गयी थी।
बचपन में जिस मदरसे से नूर मोहम्मद ने तालीम हासिल की थी उन्होंने उसी मदरसे में अपनी औलादों को भी पढ़ाया, और जिस कालेज में वे नहीं पढ़े थे बच्चे भी उसमे पढ़ने के लिए नहीं भेजे। कुल मिलाकर मदरसे से अधिक तालीम की उनके खानदान में रवायत नहीं थी।
नूर मोहम्मद को पूरी कुरआन कंठस्थ थी, लेकिन एक भी आयत हृदयस्थ नहीं हुई थी इसीलिये न तो उन्हें इस्लाम का ज्ञान था और न ही किसी अन्य धर्म की जानकारी।
वर्त्तमान समय में नूर मोहम्मद की उम्र चालीस साल के आसपास है। उनके निकाह को सोलह साल हो गए है। उनका मत है कि इतने साल इस प्रकार की बीवी के साथ गुज़ारने के एवज में सरकार को उन्हें मुवाबजा देना चाहिए। लेकिन उनकी आवाज़ उठाने के लिए कोई संस्था आगे नहीं आ रही है। इसलिए विवश होकर उन्होंने तलाक देने का मन बनाया। लगभग सभी बच्चे अपने पैरों पर खड़े क्या, बल्कि चलने भी लगे है, दो बच्चे शकूर के कारखाने में दरदोजी का काम करते है। दो स्कूटर में हवा भरने के अलावा थोड़ा बहुत मिस्त्रीगिरी भी जान गए हैं। एक हाफ़िज़ मास्टर से टेलरिंग सीख रहा है। शेष अभी बहुत छोटे है इसलिए उनकी जिम्मेदारी माँ के हिस्से में आएगी। कुल मिलाकर तलाक देने में कोई नैतिक , कानूनी या शरियत की अड़चन नहीं आयेगी। लेकिन समस्या यह कि तलाक दिया कैसे  जाए?
नसरीन की जबरता उनकी सहजता पर हाबी थी. जब भी वे तलाक का माहौल बनाने का प्रयास करते नसरीन उन्हें कूट देती। वे तीन बार तलाक... तलाक... तलाक... कहने के लिए मुंह खोलने ही वाले होते कि उनके मुंह से तड़ाक !!! तड़ाक !!! तड़ाक!!!  के स्वर नसरीन बेगम गुंजित कर देती।
क्रमशः....

Saturday, 8 October 2016

सोनेलाल की दीवाली....
सोनेलाल को लगा कि अब दुकान समेटने का समय हो गया है। चारो तरफ से पटाखों की आवाज़ें आ रही थीं। आसमान पर रंग बिरंगी रोशनी के पटाखे अजीब-अजीब आवाज़ों से उसे चिढाते से प्रतीत हो रहे थे। पता नहीं क्यों उसे आज त्यौहार में हर्ष के बजाय संत्रास अधिक महसूस हो रहा था। दोनों बच्चे सुबह से उसके साथ ही थे। सुबह फुटपाथ साफ़ करके पूरी ऊर्जा से दोनों ने दूकान सजाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। इस वर्ष बड़े मन से मिट्टी के दिए, खिलौने, गणेश लक्ष्मी की मूर्तियां पूरे परिवार ने मिलकर बनायी था।
सड़क पर चहल-पहल कम हो गयी थी। अब ग्राहकों के आने की कोई उम्मीद भी नहीं थी। पिता का इशारा पाकर बच्चों ने सामान वापस ले जाने के उद्देश्य से उसे समेटना शुरू कर दिया। मिट्टी के चूल्हे, चकिया, ग्वालिन, रखते समय सोनेलाल को अहसास हुआ कि बिकता भी कैसे आज के शहरी बच्चे इससे वाकिफ भी कहाँ है जो इसे खरीदने जी ज़िद करते। गलती उसी की है जो समय से तालमेल नहीं बैठा पा रहा है। बड़ी-बड़ी मशीनों से बनी गणेश लक्ष्मी की मूर्तियों के आगे उसके हाथ से बनी मूर्तियां टिक नहीं पायी बाज़ार में। बीस साल पहले जब लोग कहते थे सोनेलाल के हाँथ में जादू है। मूर्ति में प्राण के अतिरिक्त सबकुछ डाल देता है सोनेलाल, बड़ा अच्छा लगता था। तब तो एक माह पहले से लोग आर्डर दे देते थे। सोनेलाल की मूर्ति खरीद पाने वाला स्वयं को सौभाग्यशाली समझता था। उसकी बिरादरी में इस कला के कारण बड़ी धाक थी। मिट्टी से मूर्ति बनाने की प्रतिस्पर्धा में कई जिलों के कारीगरों को सोने लाल पराजित कर चुके थे। जिसे कोई आदमी न हरा सका आज वह आदमी की बनायी मशीन से स्वयं को बुरी तरह हारा महसूस कर रहा था। बीस में सिर्फ तीन मूर्तियां ही बिकी थी। चार मूर्तियां लाने, रखने और न बिकपाने की पीड़ा में टूट चुकी थी। शेष तेरह मूर्तियां उदास और अपमानित वापस घर जाने के लिए बोरे में भर दी गयीं।
देखते ही देखते फुटपाथ खाली हो गया। कोई किसी से न तो नज़रें मिला पा रहा था और न ही कुछ बोल रहा था। सर पर बोरी रखे आगे-आगे सोनेलाल और उसके पीछे अपनी क्षमता से अधिक झोलों में मूर्तियां लादे दोनों पुत्र घर की और चल दिए। सामने कुछ दुकाने अभी तक खुली देख कर सोने लाल ने अपने बड़े लड़के से झोला लेकर आज की सारी बिक्री का पैसा उसे थमाते हुए आधा किलो मिठाई खरीद लाने का निर्देश दिया। लड़का चुपचाप मार्केट की ओर चला गया। छोटे लड़के के चहरे पर हल्की मुस्कान देखकर उसे अपने निर्णय पर खुशी हुई। उसने  अपनी दुकान पर इस आयु वर्ग के बच्चों को माता-पिता से ज़िद करके सामन खरीदते हुए कई बार देखा था। लेकिन उसके बच्चे कभी ज़िद नहीं करते क्योंकि शायद उन्हें यह ज्ञात है कि जब समय गरीब रखने की ज़िद कर रहा हो तो बच्चों को ज़िद नहीं करनी चाहिए। बड़ा लड़का वापस आ चुका था, लेकिन उसके हाँथ में अपनी माँ के लिए दवाई की एक शीशी छोटे भाई की कापियां और कुछ बचे हुए पैसे देखकर सोनेलाल की इच्छा हुई कि ज़ोर- ज़ोर से रोने लगें। लेकिन फ़ौरन अहसास हुआ उसके सपूत जो इस गरीबी से अभी तक नहीं टूटे है बाप के आंसू देखकर टूट जाएंगे। तीनों चुपचाप घर की और बढ़ गए।
किसी पिता के लिए कितना बड़ा पहाड़ होता है वह क्षण जब उसे यह अहसास हो कि बच्चे अपने मन में अपनी बुनियादी ज़रूरतें दबा रहे हैं। लेकिन उसके बच्चे, बच्चे कहाँ है, साथ में चल रहे ये दोनों तो पिता है उसके, यह बात अलग है कि उसमे से एक की उम्र सात साल और दूसरे की नौ साल ही है।
- राजेन्द्र पण्डित, लखनऊ।

Monday, 14 September 2015

हिन्दी सुगम साहित्य की श्रेष्ठ पत्रिका www.navanvarat.com

Friday, 24 July 2015

मदिरामृतम् का मेरा प्रिय मुक्तक......
रचनाकार - राजेन्द्र पण्डित, लखनऊ
स्वर - कविता तिवारी